राज्यों की राजशाही! केंद्र व राज्यों के बीच करों के वितरण का मुद्दा हमेशा से रहा जटिल

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केंद्र सरकार के आम बजट के बाद देश के राज्यों का घाटे का बजट पेश होने लगता है। घाटे के बजट का सामान्य सा आशय है कि सरकार आने वाले साल के लिए जो खर्च का विवरण पेश करती है, उस साल उसकी अनुमानित आय उससे कम होती है। इसी को कहते हैं उधार लेकर घी पीना और हाजमा खराब कर लेना। उधार या कर्ज लेना बुरी बात नहीं है, लेकिन उसका उपयोग खुद को कजर्दार की स्थिति से उबरने के लिए किया जाए। अपने जिस राजस्व की हिस्सेदारी को लेकर रोज केंद्र सरकार से किच-किच करते हैं, उसी को सालाना बजट के दौरान लोक-लुभावन मदों में हंसते-हंसते लुटा देते हैं। केंद्र-राज्य के बीच स्थायी वित्तीय वितरण संबंधों के इतर क्या इनको अपने बलबूते आत्मनिर्भर बढ़ने की ओर अग्रसर नहीं होना चाहिए।

प्राकृतिक संसाधनों के धनी हमारे राज्य तमाम अहम मसलों पर केंद्र पर आश्रित हैं। इनकी खुद की कमाई कैसे बढ़े, कैसे ये वित्त मामलों में आत्मनिर्भर हों, इसको हासिल करने के लिए मेहनत और धन का मोल समझना जरूरी होगा। उद्यम लगाए जाएं, मानव संसाधन हुनरमंद, स्वस्थ और शिक्षित बनें, लोगों के कल्याण का स्तर बढ़े, बजट में किसी खासे वर्ग को खुश करने की बजाय पूंजीगत खर्च के तहत इनसे जुड़े संसाधनों का विकास करना होगा। उन्हें इस मानसिकता से उबरना होगा कि दादा लाएंगे तो खाएंगे, मारे जाएंगे तो तमाशा देखेंगे। खुद के भी हाथ-पैर हिलाने की जहमत करेंगे तो जनता को वे सब तमाम सहूलियतें भी दे सकेंगे जो केंद्र सरकार चाह कर भी नहीं दे पा रही है।


राजस्व घाटा उत्पादक खर्चो की बाधा: सभी राज्यों का 2018-19 का बजट जीडीपी के 0.2 फीसद (34 हजार करोड़ रुपये) सरप्लस में था। मतलबराज्यों ने वेतन आदि जैसे गैरउत्पादक खर्चो की तुलना में अधिक राजस्व का आकलन किया। वास्तविकता में उनको जीडीपी के 0.1 फीसद (13 हजार करोड़ रुपये) का राजस्व घाटा था। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों को क्रमश: जीडीपी का 0.7 और 0.8 फीसद राजस्व घाटा हुआ। जिसके चलते उनकी करीब कुल उधारी का आधा हिस्सा गैरउत्पादक खर्चो के नाम रहा। पंजाब और हरियाणा का राजस्व घाटा जीडीपी का 1.5 फीसद है जिसके चलते उन्हें जीएसडीपी के तीन फीसद तक वित्तीय घाटे के विस्तार पर विवश होना पड़ा।

केंद्र-राज्य वित्तीय ढांचा क्या है: केंद्र बड़े करों का संग्रह करता है, जबकि स्वास्थ्य, शिक्षा व कानून-व्यवस्था आदि पर ज्यादातर खर्च राज्य ही करते हैं। इस प्रकार उनके राजस्व की प्राप्ति और खर्च के बीच असंतुलन पैदा होता है। वित्तीय वर्ष 2020 में 11.87 लाख करोड़ रुपये राज्यों में बांटे गए। केंद्र के नजरिये से देखें तो यह उसके द्वारा संग्रहीत करों का 55 फीसद था। अगर राज्यों के नजरिये से देखें तो यह राज्य के संयुक्त राजस्व का सिर्फ 38 फीसद ठहरता है। केंद्र व राज्य, दोनों संयुक्त राजस्व पूल के बड़े हिस्से को अपने पास रखना चाहते हैं।

कर संग्रह में असमानता: विकास में मामले में सभी राज्यों की स्थिति एक जैसी नहीं है। कोई राज्य ज्यादा विकास कर रहा है कोई अधिक पिछड़ा है। कर संग्रह के मामले में भी राज्यों की क्षमता अलग है। उदाहरण के लिए, दिल्ली द्वारा संग्रहीत कर से उसके 85 फीसद तक खर्च का प्रबंध हो जाता है, लेकिन पूर्वोत्तर के मिजोरम, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर जैसे राज्य अपनी जरूरतों के मुकाबले 10 फीसद भी कर का संग्रह नहीं कर पाते।

कौन तय करता है वित्तीय ढांचा: वित्त आयोग तय करता है कि राज्यों के बीच राजस्व का वितरण कैसे होगा। वह यह भी तय करता है कि राज्यों के भीतर राजस्व का वितरण कैसे होगा। केंद्र प्राप्त करों को राज्यों के बीच अनटाइड फंड यानी निर्बंध राशि के रूप में वितरण करता है। इसका अर्थ हुआ कि राज्य इस राशि का जैसे चाहें इस्तेमाल कर सकते हैं। जरूरतमंद राज्यों को वित्तीय अनुदान के रूप में भी राशि प्रदान की जाती है, लेकिन इसका उपयोग राज्य उन्हीं मद में कर सकते हैं जिनके लिए मांग की गई होती है।

समग्रता में राज्यों को कितना धन देता है केंद्र: केंद्र राज्यों को वित्त आयोग की तरफ से निर्धारित सीमा से अलग केंद्रीय योजनाओं को पूरा कराने के लिए भी राशि प्रदान करता है। मसलन, स्वच्छ भारत अभियान के मद में केंद्र राज्यों को राशि प्रदान करता है, लेकिन उसका इस्तेमाल सिर्फ इसी मद में किया जा सकता है।


कैसे विकसित होता है वित्तीय ढांचा: 14वें वित्त आयोग के अध्यक्ष वाईवी रेड्डी ने कर हस्तांतरण को राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का मूल जरिया कहा था। उन्होंने इसे 42 फीसद कर दिया था। उम्मीद थी कि इससे राज्यों को टाइड फंड के हस्तांतरण में कमी आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

कैसे होता है राज्यों के बीच राशि का वितरण: 28 राज्यों व आठ केंद्रशासित प्रदेशों के बीच राशि वितरण का फॉर्मूला भी एक मसला है। धनी राज्य यह कहते हैं कि वे खजाने में तो ज्यादा योगदान देते हैं, लेकिन वितरण के वक्त उनके हिस्से में धन कम आता है। यह उनकी बड़ी चिंता है।

तय हुआ नया फॉर्मूला: 15वें वित्त आयोग ने आबादी का महत्व 27.5 फीसद से घटाकर 15 फीसद कर दिया। अब सिर्फ 2011 की जनसंख्या पर विचार किया जाता है। जब यह तर्क दिया कि राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा काम किया है तो वित्त आयोग ने एक नया मानक तय करते हुए कहा कि अब जनसांख्यिकी प्रदर्शन की गणना कुल जन्मदर के आधार पर की जाएगी।


राज्यों की बढ़ रही केंद्र पर निर्भरता: राज्यों की केंद्रीय कोष पर निर्भरता वित्त वर्ष 1991 में 40 फीसद थी, जो बढ़कर 50 फीसद हो चुकी है। सरकार ने हाल के वर्षों में आर्थिक सुस्ती को तोड़ने के लिए राज्यों को अधिक धन प्रदान किया है। चाहे केंद्र हो या राज्य सभी आर्थिक विकास की गति बरकरार रखना चाहते हैं।

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